Sunday, July 17, 2005

ग़ज़लें

[1]
हैं अँधेरे लाख लेकिन इक जलता तो है
तू नहीं है साथ, यादों का तेरी साया तो है

कह रहा है मुसकुरा के मुझसे मेरा आईना
इस पराए शहर में कोई तेरा अपना तो है

आज मायूसी को मेरी कुछ क़रार आ ही गया
कोरा काग़ज़ ही सही पर उसने ख़त भेजा तो है

पूछता है दूसरों से हाल मेरा बारहा
हो उसे इन्कार लेकिन वास्ता रखता तो है

वो नहीं मैं, जो सफ़र की मुश्किलों से जाए डर
मंज़िलें मेरी नहीं तो क्या, मेरा रस्ता तो है

कौन कहता है ज़माने का लहू ठंडा हुआ
हादसा 'नर्गिस' यहाँ हर रोज़ इक होता तो है
***

[2]
एक खिलौनेवाला ये कहता फिरता है गलियों में
मोल जो इनका समझे वो बच्चा रहता है गलियों में

छोटी बस्ती में रहने के लुत्फ़ ये शहरी क्या जाने
राम-राम कर लेता है जो भी मिलता है गलियों में

रंगो-बू सब क़ैद हुए महलों के सुनहरी गमलों में
बाँह पसारे मिलता है जो गुल खिलता है गलियों में

इस्कूलों को जानेवाले बच्चे देख के याद आया
जीवन का हर सख्त़ सबक़ बचपन पढ़ता है गलियों में

मेरे गाँव के सीधे-सच्चे लोग ग़मों से कैसे डरें
एक फ़कीर सभी को दुआ देता फिरता है गलियों में

ऊँची-ऊँची उनकी इमारत जगमग-सी हो उठती है
और सूरज का साया तक न ढल पाता है गलियों में

नूरे-तबस्सुम जिसने चुराया उसकी राह में ऐ 'नर्गिस'
इक-इक आँसू दीपक बन झिलमिल करता है गलियों में
***

[3]
आँगन की धूप, नींव का पत्थर चला गया
वो क्या गया, के साथ मिरा घर चला गया

कितने ग़ज़ब की प्यास लिये फिर रहा था वो
जो उसके पीछे-पीछे समंदर चला गया

फिर उसके नाम कर दिया सरकार ने नगर
दुनिया से बदनसीब जो बेघर चला गया

पूछा पता किसी ने तो हमको ख़बर हुई
बरसों कोई पड़ौस में रहकर चला गया

दिल पारा-पारा होके गया जाने कब बिखर
इस तर्हा कोई आँख मिलाकर चला गया

सूरत से वास्ता यहाँ फ़ितरत को क्या भला
बुत बर्फ़ का था, आग लगाकर चला गया

'नर्गिस' न ख़ुद मुझे ही ख़बर हो सकी कभी
वो शख्स़ियत को मेरी मिटाकर चला गया
***

[4]
एक सच बोलने की देरी है
फिर ये दुनिया तमाम तेरी है

चंद वादे हैं, उनकी यादे हैं
हाँ, ये जागीर ही तो मेरी है

हौसलों की शम्मा जब रोशन
फ़िक्र क्या रात ग़र अँधेरी है॓

छँट गया दुशमनी का सब कोहरा
दोस्तों ने जो आँख फेरी है

इक दीवाने ने रेत पर 'नर्गिस'
ज़िंदगी की छवि उकेरी है।
***

[5]
पतझड़ में बहारों की महक अब भी है बाक़ी
बीते हुए लम्हों की कसक अब भी है बाक़ी

दर्पन कभी देखा तो ये अहसास भी जागा
इक ख्व़ाब की आँखों में झलक अब भी है बाक़ी

बस्ती से मेरी जा भी चुके कबके फ़सादी
सन्नाटा मगर दूर तलक अब भी है बाक़ी

ऐ पंछी बचा रखना तू परवाज़ की ख्व़ाहिश
एक तेरी तमन्ना का फ़लक अब भी है बाक़ी

कहने को तो दिल राख का इक ढेर बन गया
इसमें कहीं शोलों की धधक अब भी है बाक़ी

मौसम का फ़ुँसूँ खत्म हुआ शाम से 'नर्गिस'
आँखों में तो अश्कों की धनक अब भी है बाकी
***

[6]
आज हुईं यूँ ख़ुशियाँ घायल
दर्द-सा दिल में पाँव में पायल

जो कड़वा सच किसकी आहट
दिल में मची ये कैसी हलचल

टीस उठी, लो फिर दिल धड़का
फिर लहराया याद का आँचल

बस्तीवाले वहशी क्यूँ हैं
पूछ रहे हैं आज ये जंगल

'नर्गिस' दिल और ग़म की हालत
बीच में नागों के हैं संदल
***

[7]
उसका चेहरा शरद का चाँद लगे
चाँद का अंक उसके बाद लगे

ये जो छोटी-सी ज़िंदगी है मेरी
तुझसे मिलकर ये बेमियाद लगे

जिसकी उम्मीद छोड़ रक्खी थी
तू वो पूरी हुई मुराद लगे

प्यार संगीत में जो ढल जाए
एक-एक साँस ब्रह्म-नाद लगे

ऐ ख़ुश अब ज़बाने-इंसा को
फिर न इंसा के ख़ूँ का स्वाद लगे

ऐसे अशआर सुनाओ 'नर्गिस'
ज़िक्रे-नाशादियाँ भी शाद लगे
***

-जया नर्गिस

2 Comments:

At 5:26 AM, Anonymous Anonymous said...

Jay ji aapki gazalain prabhau chodati hain. badhayi aapko. Aapka gazal sangrah kahan mil sakega?
Dr.S.shukla, lucknow

 
At 10:21 AM, Anonymous Anonymous said...

Yeh lekhan jameen se juda hua hai.Is main premchandra ki kahaniyon ka yathardwad bhi dekhane milta hai

Pradeep Kabir

 

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