Sunday, July 17, 2005

कविताएँ

तमाशा

तमाशा जारी है
साँप नेवले को
डस नहीं पाता
नेवला हर-बार छोड़ देता है
साँप को जिंदा
और फिर
मदारी की झोली में
बरसते हैं सिक्के।
चौराहे, गालियाँ, गाँव, शहर
बदलते जाते हैं
डमरू बजता रहता है
भीड़ जुटती रहती है
तमाशा चलता रहता है
सब् जानते हैं
साँप नहीं डसेगा नेवले को
नेवला मार नहीं पाएगा साँप
फिर भी
तमाशबीनों के हाथ
फेंकते रहेंगे सिक्के
अपनी ही मर्जी के ख़िलाफ़।
***


शगल

घिर जाती है लड़की
रात के अँधेरे में
सुबह होने तक बेसाख्त़ा
डराते हैं उसे ख्व़ाबों के खौफनाक चेहरे
टपकता है
टूटकर तारा कोई
और अटक जाता है
लड़की के उलझे बालों में
जिसे वह घबराकर
छुड़ाती है हर दिन
सूरज की पहली किरणों की
कंघी से।
***


भाषा स्पर्श की

आहटों का अर्थ, भाषा स्पर्श की
वो हृदय समझेगा जिसमें प्यार है
सृष्टि का कण-कण बँधा है स्नेह से
स्नेह मत विघटित करो संदेह से
ये तो प्रकृति का अमर उपहार है
यूँ लगेगा जग अगर ना स्नेह हो
रक्त बिन निर्जीव जैसे देह हो
प्यार है बस इसलिए संसार है
विष घृणा का डस न ले जीवन की बेल
स्नेह–रस चख लो हो मन से मन का मेल
प्यार करना स्वंय पे उपकार है
***

गीत मेरे !

गीत मेरे किसी को उदास मत करना
किसी नैन–गागर में नीर मत भरना
दुख अपना तू मन के शीशे में जड़कर
मुस्काना सीख ले ख़ुशी से बिछड़कर
पीड़ा की चाप अधर द्वार मत धरना
संगम हृदय का हृदय से कराने
द्वेष–आँधियों में प्रेम-दीपक जलाने
मरने से भी तू सौ–बार मत डरना
कंठ मौन होगा ये स्वर मौन होगें
एक दिवस जब मेरे अधर मौन होगें
पतझड़ के फूलों सा तू मत बिखरना।
***

-जया नर्गिस

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